Mirza Ghalib: मिर्ज़ा ग़ालिब की बेहतरीन शायरियों का संग्रह

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मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी..!!

1. पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के, ग़ालिब

पीने दे शराब मस्जिद में बैठ के, ग़ालिब
या वो जगह बता जहाँ खुदा नहीं है..!!




2. वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं

ये हम जो हिज्र में दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को, कभी नामाबर को देखते हैं

वो आए घर में हमारे, खुदा की क़ुदरत हैं
कभी हम उमको, कभी अपने घर को देखते हैं

नज़र लगे न कहीं उसके दस्त-ओ-बाज़ू को
ये लोग क्यूँ मेरे ज़ख़्मे जिगर को देखते हैं

तेरे ज़वाहिरे तर्फ़े कुल को क्या देखें
हम औजे तअले लाल-ओ-गुहर को देखते हैं..!!




3. धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए

रोने से और् इश्क़ में बेबाक हो गए
धोए गए हम ऐसे कि बस पाक हो गए

सर्फ़-ए-बहा-ए-मै हुए आलात-ए-मैकशी थे,
ये ही दो हिसाब सो यों पाक हो गए

रुसवा-ए-दहर गो हुए आवार्गी से तुम
बारे तबीयतों के तो चालाक हो गए

कहता है कौन नाला-ए-बुलबुल को बेअसर
पर्दे में गुल के लाख जिगर चाक हो गए

पूछे है क्या वजूद-ओ-अदम अहल-ए-शौक़ का
आप अपनी आग से ख़स-ओ-ख़ाशाक हो गए

करने गये थे उस से तग़ाफ़ुल का हम गिला
की एक् ही निगाह कि बस ख़ाक हो गए

इस रंग से उठाई कल उसने 'असद' की नाश
दुश्मन भी जिस को देख के ग़मनाक हो गए..!!




4. दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है

दिल-ए नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है

हम हैं मुश्ताक़ और वह बेज़ार
या इलाही यह माजरा क्या है

मैं भी मुंह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दा क्या है

जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा-ए- ख़ुदा क्या है

ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़मजा-ओ-`इशवा- ओ-अदा क्या है

शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अम्बरी क्यों है
निगह-ए-चश्म-ए-सुर्मा सा क्या है

सबज़ा-ओ-गुल कहाँ से आये हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

हाँ भला कर तेरा भला होगा
और दर्वेश की सदा क्या है

जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है

मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है..!!




5. ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती

फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया

दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया

सादगी हाये तमन्ना यानी
फिर वो नैइरंग-ए-नज़र याद आया

उज़्र-ए-वामाँदगी अए हस्रत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया

ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया

क्या ही रिज़वान से लड़ाई होगी
घर तेरा ख़ुल्‌द में गर याद आया

आह वो जुर्रत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आके जिगर याद आया

फिर तेरे कूचे को जाता है ख़्याल
दिल-ए-ग़ुमगश्ता मगर याद् आया

कोई वीरानी-सी-वीराँई है
दश्त को देख के घर याद आया

मैंने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था के सर याद आया..!!




6. मेरे दर्द की दवा करे कोई

इब्न-ए-मरयम हुआ करे कोई
मेरे दर्द की दवा करे कोई

शरअ ओ आईन पर मदार सही
ऐसे क़ातिल का क्या करे कोई

चाल जैसे कड़ी कमान का तीर
दिल में ऐसे के जा करे कोई

बात पर वाँ ज़बान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई

बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई

न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई

रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई

कौन है जो नहीं है हाजत-मंद
किस की हाजत रवा करे कोई

क्या किया ख़िज़्र ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा करे कोई

जब तवक़्क़ो ही उठ गई ग़ालिब
क्यूँ किसी का गिला करे कोई..!!




7. इश्क़ पर ज़ोर नहीं है, यह वह आतिश ग़ालिब

नुक्‌तह-चीं है ग़म-ए दिल उस को सुनाए न बने
क्या बने बात जहां बात बनाए न बने

मैं बुलाता तो हूं उस को मगर अय जज़्‌बह-ए दिल
उस पह बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने

खेल सम्झा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए
काश यूं भी हो कि बिन मेरे सताए न बने

ग़ैर फिर्‌ता है लिये यूं तिरे ख़त को कि अगर
कोई पूछे कि यह क्या है तो छुपाए न बने

इस नज़ाकत का बुरा हो वह भले हैं तो क्‌या
हाथ आवें तो उंहें हाथ लगाए न बने

कह सके कौन कि यह जल्‌वह-गरी किस की है
पर्‌दह छोड़ा है वह उस ने कि उठाए न बने

मौत की राह न देखूं कि बिन आए न रहे
तुम को चाहूं कि न आओ तो बुलाए न बने

बोझ वह सर से गिरा है कि उठाए न उठे
काम वह आन पड़ा है कि बनाए न बने

इश्क़ पर ज़ोर नहीं है, यह वह आतिश ग़ालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने..!!




8. दिया है दिल अगर उसको, बशर है क्या कहिये

दिया है दिल अगर उसको, बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो हो, नामाबर है, क्या कहिये

ये ज़िद्, कि आज न आवे और आये बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है, क्या कहिये

रहे है यूँ गह-ओ-बेगह के कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिये कि दुश्मन का घर है, क्या कहिये

ज़िह-ए-करिश्म के यूँ दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उंहें सब ख़बर है, क्या कहिये

समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है, क्या कहिये

तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़्याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या कहिये

उंहें सवाल पे ज़ओम-ए-जुनूँ है, क्यूँ लड़िये
हमें जवाब से क़तअ-ए-नज़र है, क्या कहिये

हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है, क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मतअ-ए-हुनर है, क्या कहिये

कहा है किसने कि 'ग़ालिब' बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़्तासर है क्या कहिये..!!




9. ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे

आईना क्यूँ न दूँ के तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ के तुझसा कहें जिसे

हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़्याल में
गुलदस्ता-ए-निगाह सुवेदा कहें जिसे

फूँका है किसने गोशे मुहब्बत में ऐ ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार तमन्ना कहें जिसे

सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डलिये
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक के सहरा कहें जिसे

है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ
शौक़-ए-इनाँ गुसेख़ता दरिया कहें जिसे

दरकार है शिगुफ़्तन-ए-गुल हाये ऐश को
सुबह-ए-बहार पंबा-ए-मीना कहें जिसे

'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे..!!




10. फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं

फिर कुछ इस दिल् को बेक़रारी है
सीना ज़ोया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है

फिर जिगर खोदने लगा नाख़ून
आमद-ए-फ़स्ल-ए-लालाकारी है

क़िब्ला-ए-मक़्सद-ए-निगाह-ए-नियाज़
फिर वही पर्दा-ए-अम्मारी है

चश्म-ए-दल्लल-ए-जिन्स-ए-रुसवाई
दिल ख़रीदार-ए-ज़ौक़-ए-ख़्बारी है

वही सदरंग नाला फ़र्साई
वही सदगूना अश्क़बारी है

दिल हवा-ए-ख़िराम-ए-नाज़ से फिर
महश्रिस्ताँ-ए-बेक़रारी है

जल्वा फिर अर्ज़-ए-नाज़ करता है
रोज़-ए-बाज़ार-ए-जाँसुपारी है

फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है..!!




11. आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है

आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है

देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले
नश्शा बअन्दाज़-ए-ख़ुमार नहीं है

गिरिया निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को
हाये, कि रोने पे इख़्तियार नहीं है

हम से अबस है गुमान-ए-रन्जिश-ए-ख़ातिर
ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुब्बार नहीं है

दिल से उठा लुत्फे-जल्वाहा-ए-म'आनी
ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है

क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे
वाये, अगर अहद उस्तवार नहीं है

तूने क़सम मै-कशी की खाई है 'ग़ालिब'
तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है..!!




12. जी ढूंड्‌ता है फिर वही फ़ुर्‌सत कि रात दिन

मुद्‌दत हुई है यार को मिह्‌मां किये हुए
जोश-ए क़दह से बज़्‌म चिराग़ां किये हुए

कर्‌ता हूं जम`अ फिर जिगर-ए लख़्‌त-लख़्‌त को
`अर्‌सह हुआ है द`वत-ए मिज़ह्‌गां किये हुए

फिर वज़`-ए इह्‌तियात से रुक्‌ने लगा है दम
बर्‌सों हुए हैं चाक-ए गरेबां किये हुए

फिर गर्‌म-ए नालह्‌हा-ए शरर-बार है नफ़स
मुद्‌दत हुई है सैर-ए चिराग़ां किये हुए

फिर पुर्‌सिश-ए जराहत-ए दिल को चला है `इश्‌क़
सामान-ए सद-हज़ार नमक्‌दां किये हुए

फिर भर रहा हूं ख़ामह-ए मिज़ह्‌गां ब ख़ून-ए दिल
साज़-ए चमन-तराज़ी-ए दामां किये हुए

बा-हम-दिगर हुए हैं दिल-ओ-दीदह फिर रक़ीब
नज़्‌ज़ारह-ए जमाल का सामां किये हुए

दिल फिर तवाफ़-ए कू-ए मलामत को जाए है
पिन्‌दार का सनम-कदह वीरां किये हुए

फिर शौक़ कर रहा है ख़रीदार की तलब
`अर्‌ज़-ए मत`-ए `अक़्‌ल-ओ-दिल-ओ-जां किये हुए

दौड़े है फिर हर एक गुल-ओ-लालह पर ख़ियाल
सद गुल्‌सितां निगाह का सामां किये हुए

फिर चाह्‌ता हूं नामह-ए दिल्‌दार खोल्‌ना
जां नज़्‌र-ए दिल-फ़रेबी-ए `उन्‌वां किये हुए

मांगे है फिर किसी को लब-ए बाम पर हवस
ज़ुल्‌फ़-ए सियाह रुख़ पह परेशां किये हुए

चाहे है फिर किसी को मुक़ाबिल में आर्‌ज़ू
सुर्‌मे से तेज़ दश्‌नह-ए मिज़ह्‌गां किये हुए

इक नौ-बहार-ए नाज़ को ताके है फिर निगाह
चह्‌रह फ़ुरोग़-ए मै से गुलिस्‌तां किये हुए

फिर जी में है कि दर पर किसी के पड़े रहें
सर ज़ेर-बार-ए मिन्‌नत-ए दर्‌बां किये हुए

जी ढूंड्‌ता है फिर वही फ़ुर्‌सत कि रात दिन
बैठे रहें तसव्‌वुर-ए जानां किये हुए

ग़ालिब हमें न छेड़ कि फिर जोश-ए अश्‌क से
बैठे हैं हम तहीयह-ए तूफ़ां किये हुए..!!




13. सबने पहना था बड़े शौक से कागज़ का लिबास

सबने पहना था बड़े शौक से कागज़ का लिबास
जिस कदर लोग थे बारिश में नहाने वाले

अदल के तुम न हमे आस दिलाओ
क़त्ल हो जाते हैं , ज़ंज़ीर हिलाने वाले..!!




14. इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या

इस नज़ाकत का बुरा हो, वो भले हैं तो क्या
हाथ आएँ तो उन्हें हाथ लगाए न बने

कह सके कौन के यह जलवागरी किस की है
पर्दा छोड़ा है वो उस ने के उठाये न बने..!!




15. तुम उसकी राह न देखो वो ग़ैर था साक़ी

वफ़ा के ज़िक्र में ग़ालिब मुझे गुमाँ हुआ
वो दर्द इश्क़ वफाओं को खो चूका होगा,

जो मेरे साथ मोहब्बत में हद-ऐ-जूनून तक था
वो खुद को वक़्त के पानी से धो चूका होगा,

मेरी आवाज़ को जो साज़ कहा करता था
मेरी आहोँ को याद कर के सो चूका होगा,

वो मेरा प्यार, तलब और मेरा चैन-ओ-क़रार
जफ़ा की हद में ज़माने का हो चूका होगा,

तुम उसकी राह न देखो वो ग़ैर था साक़ी
भुला दो उसको वो ग़ैरों का हो चूका होगा..!!




16. जो दिल में रह कर भी मेरा न बन सका

तू तो वो जालिम है जो दिल में रह कर भी मेरा न बन सका, ग़ालिब,
और दिल वो काफिर, जो मुझ में रह कर भी तेरा हो गया..!!




17. हमको मालूम है जन्नत की हकी़क़त लेकिन

हुस्न-ए-माह गरचे बा-हँगाम-ए-कमाल अच्छा है,
उससे मेरा मह-ए-ख़ुरशीद जमाल अच्छा है

बोसा देते नहीं और दिल है हर लह्ज़ा निगाह,
जी में कहते हैं कि मु़फ्त आए तो माल अच्छा है

और बाज़ार से ले आए अगर टूट गया,
साग़र-ए-जाम से मेरा जाम-ए-सि़फाल अच्छा है

बेतलब दें तो मज़ा उसमें सिवा मिलता है,
वो गदा जिसको न हो ख़ू-ए-सवाल अच्छा है

हम-सुख़न तेशे ने फ़र्हाद को शीरीं से किया,
जिस तरह का कि किसी में हो कमाल अच्छा है

क़तरा दरिया में जो मिल जाए तो दरिया हो जाए,
काम अच्छा है वो, जिसका कि मआल अच्छा है

ख़िज़्र सुल्ताँ को रखे ख़ालिक-ए-अक्बर सर-सब्ज़,
शाह के बाग़ में ये ताज़ा निहाल अच्छा है

उनके देखे से आ जाती है मुँह पे जो रौनक
वो समझते है बीमार का हाल अच्छा है

देखिये पाते हैं उश्शाक़ बुतो से क्या फ़ैज
इक ब्रहामन ने कहा है कि ये साल अच्छा है

हमको मालूम है जन्नत की हकी़क़त लेकिन
दिल को बहलाने के लिए 'ग़ालिब', ये खयाल अच्छा है..!!




18.  हुई मुद्दत, कि 'ग़ालिब' मर गया

न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता

हुआ जब ग़म से यूं बेहिस, तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से, तो जानूं पर धरा होता

हुई मुद्दत, कि 'ग़ालिब' मर गया, पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता..!!




19. के खुशी से मर ना जाते, अगर 'ऐतबार' होता

ये ना थी हमारी क़िस्मत के विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते, यही इंतजार होता

तेरे वादे पर जिये हम, तो ये जान झूठ जाना
के खुशी से मर ना जाते, अगर 'ऐतबार' होता

तेरी नाज़ुकी से जाना के बँधा था 'एहेद-ए-बोधा'
कभी तू ना तोड़ सकता, अगर उस्तुवार होता

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम कश को
ये खलिश कहाँ से होती, जो जिगर के पार होता

ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता, कोई गम-गुसार होता

रग-ए-संग से टपकता, वो लहू की फिर ना थमता
जिसे गम समझ रहे हो, ये अगर शरार होता

ग़म अगरचे जान-गुलिस हैं , पे कहाँ बचें के दिल हैं
ग़म-ए-इश्क़ गर ना होता, ग़म-ए-रोज़गार होता

कहूँ किस से मैं के क्या हैं शब-ए-ग़म बुरी बला हैं
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता

हुए मर के हम जो रुसवा, हुए क्यों ना गर्क-ए-दरिया
ना कभी जनाज़ा उठता, ना कहीं मज़ार होता

उसे कौन देख सकता के यगान हैं वो यक्ता
जो दूई की बू भी होती, तो कहीं दो चार होता

ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़, ये तेरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते, जो ना बादा-ख्वार होता..!!



20. रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों

दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आये क्यों
रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें सताये क्यों

दैर नहीं, हरम नहीं, दर नहीं, आस्तां नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम, ग़ैर हमें उठाये क्यों

जब वो जमाल-ए-दिलफ़रोज़, सूरते-मेह्रे-नीमरोज़
आप ही हो नज़ारा-सोज़, पर्दे में मुँह छिपाये क्यों

दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जांसितां, नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही, सामने तेरे आये क्यों

क़ैदे-हयातो-बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों

हुस्न और उसपे हुस्न-ज़न रह गई बुल्हवस की शर्म
अपने पे एतमाद है ग़ैर को आज़माये क्यों

वां वो ग़ुरूर-ए-इज़्ज़-ओ-नाज़ यां ये हिजाब-ए-पास-वज़अ़
राह में हम मिलें कहाँ, बज़्म में वो बुलायें क्यों

हाँ वो नहीं ख़ुदापरस्त, जाओ वो बेवफ़ा सही
जिसको हो दीन-ओं-दिल अज़ीज़, उसकी गली में जाये क्यों

'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता के बग़ैर कौन-से काम बन्द हैं
रोइए ज़ार-ज़ार क्या, कीजिए हाय-हाय क्यों..!!



21. हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले

हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूँ जो चश्म ए तर से उम्र भर यूँ दमबदम निकले

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले

हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जामेजम निकले

हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले..!!



22. इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही


इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही

क़त्अ कीजे, न तअल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही

मेरे होने में है क्या रुसवाई
ऐ वो मजलिस नहीं, ख़ल्वत ही सही

हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझसे मुहब्बत ही सही

हम कोई तर्के-वफ़ा करते हैंना सही इश्क़, मुसीबत ही सही
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे

बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही
यार से छेड़ चली जाए 'असद'

गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही..!!



23. दर्द हो दिल में तो दवा कीजे

दर्द हो दिल में तो दवा कीजे
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे

हमको फ़रियाद करनी आती है
आप सुनते नहीं तो क्या कीजे

इन बुतों को ख़ुदा से क्या मतलब
तौबा तौबा ख़ुदा ख़ुदा कीजे

रंज उठाने से भी ख़ुशी होगी
पहले दिल दर्द आशना कीजे

अर्ज़-ए-शोख़ी निशात-ए-आलम है
हुस्न को और ख़ुदनुमा कीजे

दुश्मनी हो चुकी बक़द्र-ए-वफ़ा
अब हक़-ए-दोस्ती अदा कीजे

मौत आती नहीं कहीं, ग़ालिब
कब तक अफ़सोस जीस्त का कीजे..!!



24. कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं..!!

यूं तो हम हिज़र में भी दीवार-ओ-दर को देखते हैं
कभी सबा को कभी नामाबर को देखते हैं

वो आये घर में हमारे खुदा की कुदरत है
कभी हम उनको कभी अपने घर को देखते हैं..!!




25. हर सितम बे-मिसाल करते हो..!!

दुःख दे कर सवाल करते हो
तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो

देख कर पूछ लिया हाल मेरा
चलो कुछ तो ख्याल करते हो

शहर-ऐ-दिल में उदासियाँ कैसी
यह भी मुझसे सवाल करते हो

मरना चाहे तो मर नहीं सकते
तुम भी जिना मुहाल करते हो

अब किस किस की मिसाल दू मैं तुम को
हर सितम बे-मिसाल करते हो..!!



26. हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'

हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है

ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे
वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू क्या है

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है

जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है

वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है

पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है

हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वरना शहर में 'ग़ालिब; की आबरू क्या है..!!



27. इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया

ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के

ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये
हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के

ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के

रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के

दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के

शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर
देखिए कब दिन फिरें हम्माम के

इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के..!!



28. आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक

आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तॆरी ज़ुल्फ कॆ सर होने तक

दाम हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-नहंग
देखे क्या गुजरती है कतरे पे गुहर होने तक

आशिकी सब्र तलब और तमन्ना
बेताब‌दिल का क्या रंग करूं खून‍-ए-जिगर होने तक

हमने माना कि तगाफुल न करोगे
लेकिन‌ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक

परतवे-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
में भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक

यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सते-हस्ती गाफिल
गर्मी-ए-बज्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक

गम-ए-हस्ती का 'असद' कैसे हो जुज-मर्ग-इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक..!!

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